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 Adrishya Bhara Book by Bhasha Singh (पुस्तक अदृश्य भारत)

Adrishya Bharat

(Paperback, Hindi)
by 

Bhasha Singh


Publisher: Penguin (2012)
Price: Rs. 199
Rs. 153
Discount: Rs. 46
(Prices are inclusive of all taxes)












ADRISHYA BHARAT (Invisible India)
A book in Hindi by Bhasha Singh
New Delhi: Penguin Books, 2012; 
Printed Price : Rs 199.

Adrishya Bharat is a narrative of manual scavenging in India, perhaps a first of its kind in any language. It is a heart-rending account of people, mostly women, carrying night soils on their heads. It is also a saga of their brave struggle to come out of this castiest hell and lead a life of dignity and justice.

This book also talks about how these wretched of earth- who were never treated as human beings- are knocking at the closed doors of legislature, executive and judiciary.

The book is in two sections. First section deals with stories from visits to eleven states- Kashmir, Delhi, Haryana, Uttar Pradesh, Gujarat, Bihar, West Bengal, Madhya Pradesh, Rajasthan, Andhra Pradesh and Karnataka. It is a collection of some mind-shattering experiences of Baltiwalis of Kanpur, Dabbuwalis of Bengal, Tinawalis of Bihar, Tottikar of Andhra Pradesh and Watals of Kashmir. This book is different as it just not talks about the practice but also about the pain, the agony and the lives of the scavenger communities. Second section is about the legal, social and political hypocrisies which contribute to this practice. It exposes layers of lies of our socio-political system which protected this heinous practice even after 65 years of our country’s Independence.

Besides in-depth analysis, this is a well-documented book with latest data, charts, maps and photographs. The book also contains details of the scavenging castes across the country in a historical perspective.

The book is a reflection upon our society, its prejudices and its mindset. This book should stir a few heads.


'अदृश्य भारत'


भारत के अधिकांश घरों में बिना हल्दी के खाना नहीं पकता, लेकिन इस देश की कुछ औरतें ऐसी भी हैं जिन्हें हल्दी के रंग से ही नफरत है। बिना दाल के भोजन अधूरा है, लेकिन कुछ महिलाओं को पीले रंग की दाल देखते ही मितली आने लगती है। लंबे, घने केश औरतों के सौंदर्य के आभूषण माने जाते हैं, लेकिन कुछ औरतों को अपने लंबे, घने बालों से भी घिन आती है। इन विचित्र औरतों से हमारा परिचय हाल ही में आई एक पुस्तक अदृश्य भारत में होता है।

सरोज की कहानी भाषा सिंह की लिखी गई एक किताब " अदृश्य भारत" का हिस्सा है. इस किताब में इस तरह की कई और सफाई मज़दूरों की संघर्ष गाथाएं मौजूद हैं. यह किताब पेन्गुइन ने छापी है.

ये महिलाएं हमारे मल के साथ ही हमारी इंसानियत को टोकरियों में भरकर अपने सिर के ऊपर रखती हैं। उन टोकरियों में भरा मैला उनके जेहन पर इस कदर तारी हो गया है कि खुद से और इंसानियत से घिन आने लगी है। इसीलिए हल्दी देखकर वे गश खा जाती हैं, पीली दाल देखकर उन्हें मितली आने लगती है और अपने घने, काले बालों से वे इसलिए घृणा करती हैं, क्योंकि उनमें समा गए हमारे मल की दुर्गध कभी कम होती ही नहीं। इन औरतों के लिए दुनिया की बहुत-सी खूबसूरत चीजें बदसूरत बन चुकी हैं जैसे बारिश। इन औरतों के लिए बरसात का मतलब है टपकती हुईं टोकरियां, जिनके बजबजाते मल से उनका शरीर, उनका मन और उनकी आत्मा सब भर जाते हैं।

ये औरतें हर शहर, कस्बे और गांव में सिर पर मैला ढोने का तो काम करती ही हैं, साथ ही रेलगाडि़यों से गिरने वाले मल को रेलवे लाइन से उठाती भी हैं। और हम हैं कि उनकी ओर देखना भी नहीं चाहते। शायद इसलिए कि उन्हें देख लेंगे तो हमें इस बात का अहसास हो जाएगा कि उनकी टोकरी में हमारे मल के साथ-साथ हमारी इंसानियत भी लिपटी हुई है। अगर ऐसा न होता तो क्या मजाल है कि वह टोकरी 2012 में भी उनके सिर पर टिकी होती।
पूरी दुनिया में पुराने जमाने के शुष्क (बिना फ्लश के) शौचालय या तो खत्म कर दिए गए हैं या फिर खत्म किए जा रहे हैं। कहीं भी रेलवे लाइन के ऊपर रेलगाडि़यों से गिरता हुआ मैला अब नजर नहीं आता, लेकिन हमारे देश में शुष्क शौचालयों की भरमार है और हमारी रेलवे लाइन ही नहीं, बल्कि तमाम सड़कें, गलियां और नालियां खुला शौचालय बनी हुई हैं।
संतोष की बात यह है कि इस पद्धति को समाप्त करने की आवाजें भी उठती रही हैं। सफाई कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया है। आयोग की सिफारिशें तो अलमारियों में दीमक के हवाले कर दी गईं, लेकिन आवाजें बंद नहीं हुईं। देश के कई भागों में सफाई कर्मचारियों ने आंदोलन छेड़ दिए। इसका नतीजा हुआ कि 1993 में मैला ढोने वालों को काम पर रखने और शुष्क शौचालयों का निर्माण निषेध करने वाला अधिनियम पारित किया गया। इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को मानव-मल ढोने के काम पर लगाया जाना गैर-कानूनी है। शुष्क शौचालयों के निर्माण व प्रबंध पर रोक लगा दी गई है। साथ ही मैला ढोने के काम में लगे लोगों के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करने का प्रावधान है, लेकिन यह कानून फाइलों में कैद होकर रह गया। जमीनी हकीकत में कोई बदलाव नहीं आया।
इस संबंध में अपील दायर करने पर जब सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों से जानकारी मांगी कि कानून का क्रियान्यवन किस हद तक किया गया है तो सब राज्यों का जवाब था कि मल ढोने वाला कोई कर्मचारी नहीं है और तमाम शुष्क शौचालयों को जल-चालित बना दिया गया है।
कोर्ट के सामने मल ढोने वाली महिलाओं को खड़ा करके इन झूठे बयानों का पर्दाफाश किया गया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय भी असहाय नजर आया। किसी भी अधिकारी को इस बात के लिए दंडित नहीं किया गया कि उसने कानून का पालन नहीं किया है। कानून लागू करने में सरकार की ढिलाई ने सफाई कर्मियों के संगठनों को आक्रोशित कर दिया। मैला ढोने वालों ने विभिन्न शहरों में अपनी टोकरियों में आग लगा दी और बहुत से शुष्क शौचालयों को ध्वस्त कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने दिए गए सरकारी हलफनामों की सच्चाई को परखने के लिए अदृश्य भारत की लेखिका भारत भ्रमण पर निकलीं। उन्होंने पाया कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस कानून की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। दिल्ली के नंदनगरी की मीना ने बताया कि मैला ढोने के कारण गर्भ में उनकी बेटी को संक्रमण हो गया। यह लड़की विकलांग पैदा हुई। इसके बाद से मीना ने मैला ढोने से तौबा कर ली और मैला ढोने के खिलाफ चलने वाले अभियान से जुड़ गईं। झूठ को सच मे तब्दील करने की कला का नमूना बिहार की राजधानी पटना की यात्रा के दौरान देखने को मिला। शहर की अनेक कॉलोनियों में टॉयलेट में फ्लश तो लगे हैं, किंतु मैला निकालने के लिए कोई सीवर लाइन नहीं है। जिस टैंक से पूरे इलाके के ये फ्लश टॉयलेट जुडे़ हुए हैं, उसकी सफाई दिन में नहीं, रात में होती है ताकि उस घिनौने दृश्य को देखने की तकलीफ वहां रहने वाले सभ्य लोगों को उठानी न पडे़।
सिर पर मैला ढोने वाले सबसे अधिक व्यक्ति उत्तर प्रदेश में हैं। एक लाख से अधिक ये लोग रोजाना नर्क भोगते हैं। यूपी के सबसे बड़े शहर कानपुर के तमाम पुराने मोहल्लों में औरतें ही मल साफ करती हैं। यह तब है जब राष्ट्रीय सफाई आयोग के अध्यक्ष रहे पन्नालाल तांबे इसी शहर के रहने वाले हैं। पन्नालाल कहते हैं कि जब हम गंदगी को खत्म कर सकते हैं, शुष्क शौचालय खत्म कर सकते हैं तो सरकार क्यों नहीं कर सकती? लेखिका जब अपनी यात्रा के दौरान आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले की नारायण अम्मा से मिलीं तो उनके बालों में फूलों का गजरा सजा था। उन्होंने कहा कि मैला ढोने का काम छोड़ने के बाद ही मुझे खुद के इंसान होने पर विश्वास हुआ। मैंने इस खुशी के लिए लंबा संघर्ष चलाकर नर्क से मुक्ति हासिल की है। हम सबकी मुक्ति भी नारायण अम्मा जैसी औरतों की मुक्ति के साथ जुड़ी हुई है। (लेखिका लोकसभा की पूर्व सदस्य हैं)


Details of Book: Adrishya Bharat

Book:Adrishya Bharat
Author:Bhasha Singh
ISBN:

014341643X

ISBN-13:

9780143416432


978-0143416432

Binding:Paperback
Publishing Date:2012
Publisher:Penguin
Number of Pages:240
Language:Hindi

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